12/28/08

शुभ अशुभ का चक्रव्यूह

आज के आधुनिक यूग में भी हम शुभ अशुभ के जाल से निकल नहीं पाए है . आज भी हम शुभ मुहूर्त की तलाश में ज्योतिषियों और पंडितों के यहाँ चक्कर लगते रहतें है .हमें कोई भी शुभ कार्य करना हो हम पंचांगो की गणना के चक्कर में जरूर पडतें है .लोगों का मानना है की अग शादी के लिए मुहूर्त नहीं दिखलाया तो अनिष्ट होगा.यही भय हमारे मन में बचपन से परिवार के लोग ,सम्बन्धी और मित्र भर देते है. और शायद यही वह भय है जो किसी अनहोनी की आशंका से हमें आजीवन छुटकारा नहीं लेने देती.सरे मुहूर्त तथाकथित ज्योतिषियों द्वारा रचित पंचांगों के आधार पर गणना करके निकले जाते है.और आपको यह जानकर हैरानी होगी कि पंचांग भो अलग अलग होते है. एक पंचांग कहेगा कि इस महीने कोई अच्छा मुहूर्त नहीं है वहीँ कोई दूसरा पंचांग उसी महीने एक नहीं बल्कि दो चार अच्छे मुहूर्त निकाल देगा.एसे कई महीने है जो हमारे हिन्दू समाज में शादी के लिए वर्जित माना जाता है, पर उन्ही महीनो को बंगाली पंचांग अच्छे दिन मानता है. तो क्या हम ये मान लें कि बंगाली हिन्दू नहीं है.दक्षिण भारत का पंचांग तो और भी अलग है. हम अगर गौर करेंगे तो पायेंगे कि हमारे यहाँ हर त्यौहार के अलग अलग पंचांग दो अलग अलग दिन निकालता है, जब हिन्दू समाज में आपस में ही द्वंद कि भावना है पनपने लगती है. जब पूरा हिन्दू समाज ही आपस में एकमत नहीं है,तो क्या इस अंधविश्वास को जारी रखना चाहिए? क्या इसमें कोई फायदा है? राम और सीता के विवाह के लिए शुभ दिन कि गणना सर्वकालीन श्रेष्ट ऋषियों वशिस्ठ और विस्वमित्र ने कि लेकिन दोनों के गृहस्त जीवन की जितनी दुर्दशा हुई भगवन दुसमन की भी ना करे. गुरु नानक के अनुयायी सिख भाइयों ने विगत सैकडों सालों से सब दिन को बराबर समझकर पंचांग और ज्योतिषियों को दरकिनार कर सिद्ध कर दिया है कि ये सब सिर्फ अंधविश्वास है. लेकिन बृहद हिन्दू समाज आज भी शुभ अशुभ के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पाया.यदि आज भी लोग यात्रा पर निकलने से पहले शुभ अशुभ मुहूर्त देखना शुरू कर दें तो तुंरत सारी व्यवस्था ही गड़बड़ हो जाएगी. प्रशासन पंगु हो जायेगा,व्यवसाय बर्बाद हो जायेगा,कर्मचारी बर्खास्त कर दिए जायेंगे,पदाधिकारियों को घर का रास्ता दिखा दिया जायेगा.अब हमें वक़्त के साथ चलने की जरूरत है कहीं ऐसा न हो की हम शुभ अशुभ के जाल में फंसकर वक़्त की रफ़्तार से कहीं पीछे न छुट जाएँ.

12/22/08

कानून ही काफी नही

देश में जब भी कोई आतंकी हमला होता है तब, सत्ता में रहने वाली सरकार चाहे वह युपीऐ की हो या फ़िर एनडीऐ की सभी के तेवर काफी गर्म हो जाते है। संसद पर हमला हो या मुंबई में ताज पर हमला हो, हर हमले के बाद सत्ता में बैठी सरकार आतंक के खिलाफ जंग को और धारदार बनाने के लिया नए कानून और बिल पेश करती है। संसद पर हमले के बाद जहाँ एनडीऐ ने पोटा जैसे कड़े आतंक विरोधी कानून लोकसभा में पास कराया तो वही मुंबई पर हमले के बाद युपीऐ सरकार ने भी आतंक विरोधी एक नया बिल संसद में पास कराने में सफल हो गई , कभी पोटा का विरोध करने वाली युपीऐ सरकार को आखिरकार आतंक विरोधी कानून बनाने को मजबूर होना ही पड़ा । लोकसभा में पेश किया गया यह बिल राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के गठन को लेकर है। बताया गया है की इसके लागूहोने से कई सूधार होंगे। आतंकी गतिविधियों ,सीमापार से घुसपैठ ,उग्रवाद आदि पर लगाम लगने की गुंजाईश बनेगी। इस बिल में यह प्रावधान भी है कि इसके तहत विशेष अदालत में रोज सुनवाई होगी , साथ ही आतंकी गतिविधयों के लिए पैसे एकत्रित करने वाले, आतंकी ट्रेनिंग देने वाले और इनका साथ देने वाले को ताउम्र सलाखों के पीछे भेजा जा सकता है । पोटा कि रट लगाने वाली भाजपा ने भी इसका सम्रथन किया है। कुल मिलकर अगर हम इसका आकलन करें तो क्या केवल मात्र कानून बनने से आतंकी जैसी गतिविधयां समाप्त हो जाएँगी ? क्या भारत में आतंकी गतिविधियाँ रोकने के लिए जो कानून था वह नाकाफी था ?आज देश में टाडा ,मकोका, पोटा , आर्म्ड फोर्स (स्पेशल पावर) एक्ट के रहते इस तरह कि आतंकी गतिविधयों में किस हद तक लगाम लग सका है ? आतंकी घटना पर लगाम मात्र कानून बनने से नही लगने वाला है इसके लिए हमें अपनी मानसिक में बदलाव लाने कि जरुरत है। अगर देश में आतंकी हमले हो रहे है तो इसमे जहाँ सुरक्षा बलों कि चूक जिम्मेवार है वही हमारे राजनेताओं कि ओछी राजनीती भी कम जिमेवार नही है। हालिया वर्षों में दो मामले ने यह साबित कर दिया है कि हमारे देश में कानून बनने वाले लोगों कि जमात को कानून के पालन से ज्यादा चिंता अपने स्वार्थ कि होती है । सुप्रीम कोर्ट से सजा पा चुके अफजल गुरु का मामला हो या साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का मामला हो दोनों ही मामलों में देश कि दो प्रमुख दलों कि कौम विशेष के पार्टी उनकी निष्ठां साफ झलकती है । बहरहाल देश को बाहरी शत्रुओं से बचाए रखने के लिए महज कानून बनने से कुछ भी नही होने वाला बल्कि कानून को बिना भेद भाव के लागु करने से होगा ...

12/18/08

जूते की महिमा अपरम्पार ...

भई
मिसाइल, गोली बन्दूक जैसे हथियारों का निशाना भले ही चुक जाए पर जूते का निशाना
हमेशा सटीक बैठता है, चोट शरीर पर लगे ना लगे प्रतिष्टा पर आंच जरुर ही आता है।
जूते ने अपना कमाल दिखाया है, जूते की बदौलत ही एक टीवी पत्रकार दुनिया में हीरो बन गया। सोचता हूँ मेरे जैसे कितने ही टीवी पत्रकारों के जूते रोज रोज फोकटिया न्यूज़ के चक्कर में घिस रहे हैं, कम से कम मैं तो किसी को अपने आठ नम्बर के जूते की फटी सोल से इज्जत दूँ। मानता हूँ मुझे अंकल सैम ना मिले पर हमारे अगल बगल भी तो कितने मामू लोग बैठे हैं । बल्कि ये मामू तो और भी सुलभ हैं कदम कदम पर मिल जाते हैं । आज कल मामू लोग आतंकवाद के खिलाफ मुहीम चला रहे हैं, जनता की सुरक्षा की चिंता इन्हे खाए जा रही है, वैसे वे जनता का बहुत कुछ जनवादी और जनसेवक होने की वज़ह से खा चुके हैं। मामू भी सुरक्षित रहे इसके लिए उनकी सुरक्षा भी बढ़नी जरुरी है,ऐ प्लस -बी प्लस और सी प्लस से काम नही चलेगा कम से कम जेड प्लस और कुछ कमांडो तो जरुरी है खैर भाई ये सब तो उनका हक़ है। पर हमारा भी हो फ़र्ज़ बनता है ना की मामू की इस सेवा का कुछ तो अदा करे जैदी से थोडी सीख मिली सोच रहा हूँ मामू को भी जूते की महिमा से परिचित कराया जाए।




12/4/08

झारखंडियों का हितैषी कौन...

झारखण्ड राज्य के निर्माण के बाद से ही यहाँ बाहरी भीतरी को लेकर राजनीती तेज हो गयी। राजनितिक दल इसे वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल कर ऐसी बयानबाजियां होती रही है जो आपस में खटास पैदा करती रहीं है ।इस समय झारखण्ड में कौन असली झारखंडी है का मामला गर्माया हुआ है । इसका प्रमाण माँगा और दिया जा रहा है। दरअसल पूरे देश में ही इस समय प्रांतवाद का मुद्दा छाया हुआ है।इसकी चपेट में कई राज्यों के आने से तनाव की स्थिति पैदा हो गई है।महाराष्ट्र में पिछले दिनों जो कुछ हुआ इससे सभी के कान खड़े हो गए है। महाराष्ट्र का मामला अभी थमा भी नहीं था कि झारखण्ड में बिहारी-झारखंडी का मामला गरमाने लगा है। इसे हवा दे रहें है खुद राज्य के मुख्यमंत्री और आदिवासिओं के शुभचिंतक शिबू सोरेन। किसी शुबे के मुख्यमंत्री के द्वारा इस तरह का बयान देना कहीं न कहीं शिबू की संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है,जिनकी राजनीती केवल आदिवासियों के इर्द गिर्द ही रहती है. यह सही है कि बिना स्थानीय लोगों को साथ लिए किसी राज्य का विकास संभव नहीं हो सकता है. लेकिन क्या बाहरी के नाम पर बिहारियों को निशाने पर रखना उचित है? झारखण्ड में अबतक जितने भी मुख्यमंत्री हुए वे आदिवासियों की कल्याण की बाते करतें रहे है,लेकिन क्या वास्तव में आदिवासियों कल्याण हुआ है .झारखण्ड की सत्ता हमेशा झारखंडी मुख्यमंत्रियों हाँथ में रही,लेकिन न तो आदिवासियों कल्याण हुआ और न ही किसी और का.विकास हुआ तो सत्ता के दलालों का और सत्ता के सुख भोगने वाले राजनेताओं का, जिन्होंने सत्ता में आने के बाद अपना घर भरा,पत्नी और बच्चों को लाखों का गिफ्ट दिया.झारखण्ड के ऐसे कई नेता है जिनके पास कभी तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं थे आज उनपर आय से अधिक सम्पति रखने का मामला चल रहा है,औया सभी है झारखण्ड के मिटटी की उपज झारखंडी नेता.एसे में झारखण्ड के मुखिया समेत मंत्री और विधायक का अपने को झारखण्ड का सच्चा हितैषी कहना कितना उचित है,आप खुद सोच सकतें है....

खेत की खातिर

राजीव के ब्लॉग www.saffaar.blogspot.com से
सोने की चिडियां कहा जाने वाला हमारा देश सोने का एरोप्लेन बन चुका है। विश्व की महाशक्ति, एशिया का स्वर्ग और चाँद पर पहुँच। हमने सबकुछ तो हासिल कर लिया पर एक चीज़ भूल गए.....वो है हमारा खेत, हवा, जंगल और पानी। आज हम जो कुछ भी हैं सब धरती की देन है। खाने के लिए अनाज, पिने के लिए पानी, साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा और विकास के लिए खनिज। हमने चाँद पर तिरंगा तो फहरा लिया पर बाढ़ से बेहाल गरीबों की समस्या को नही समझ पाये। हम क्रिकेट में सबसे आगे तो हैं पर मुनाफ जैसे खिलाडी क्रिकेट में क्यों नही आते, नही समझ पाये। हम अमीर तो बन गए पर विदर्भ के मरते किसानो की मजबूरी नही समझ पाये। आज एड्स से बचने के तरीके रोचक अंदाज़ में बताये जाते है, पर ये नही बताया जाता कि गन्दा पानी पिने से हर साल लाखों लोगों कि मौत होती है। जितने लोग प्रदूषित हवा, प्रदूषित जल से होने वाली बीमारिओं से मरते हैं शायद ही एड्स से मरते होंगे। मलेरिया, फलेरिया, कालाजार, डेंगू, हार्ट प्रोब्लम, लंग्स की तमाम बीमारी, इन्तेस्ताइन की बीमारी, किडनी इन्फेक्शन, आँख की बीमारी, बहरेपन, गंजापन, स्किन प्रोब्लम आदि ऐसी तमाम बीमारियाँ पर्यावरण प्रदूषण की देन है। पर इस बाजारवाद में पैसा ही सब कुछ करवाता है। एड्स में पैसे की कमाई है इसलिए एड्स आज सबसे बड़ी बीमारी है। देश की अमूमन सारी नदियाँ कचरे से पट चुकी है। सारे पहाड़ नंगे हो चुके हैं। जंगल मैदान में तब्दील हो चुका है और खेत की जगह अपार्टमेन्ट ने ले ली है...पर परवाह किसे है ? जब कोई आपदा आती है तभी हम जागते हैं। तरक्की के मायाजाल ने हमें इस कदर अँधा-बहरा कर दिया है कि सिर्फ़ सुनामी और जलजला ही हमें परेशान कर पाती है। फैक्ट्री के कचरे से जहाँ नदी ज़हर बन चुकी है वहीं प्लास्टिक और रसायनिक कचरे ने खेत की मिट्टी को बंजर बना दिया है। और तो और, जंगल की लकडी अवैध व्यापार का शिकार है। जिसने हमें इतनी ऊंचाई दी है उसी को खोखला कर हम अपनी ही नींव कमजोर कर रहे हैं। जागो मेरे भाई जागो। अपनी मिट्टी की रक्षा करो। हम सब को मिल कर हमारे पर्यावरण को स्वच्छ बनाना होगा, इसे प्रदूषण से बचाना होगा। बेजुबान जानवरों को शिकार होने से बचाना होगा। यही हमसब के हित में है।

12/3/08

हम कैसे लोग को चुनते है भाई.....


अखिलेश ने अपनी ब्लॉग www.humaap.blogspot.com पर नेताओं को चुनने के जानता के मापदंड की बात रखी है ......पेश है उनकी भावनाओं की एक बानगी ....

अभी पुरे देश में जनता नेताओ को गालिया दे रही है। आतंकियों की ही तरह नफरत वैसे नेताओ के प्रति भी है जो संकट की इस घड़ी में भी अपनी वोट बैंक और सियासत में नफा नुकसान को लेकर राजनीति करते रहे। लेकिन हम सभी को एक सवाल अपनी अंतरात्मा से भी करनी चाहिए की इन नेताओ को नेता बनाता कौन, अपने जनप्रतिनिधियों को चुनने के लिए हम कौन सा मापदंड तय करते हैं? नेता को 'ने' मतलब- नेतृत्व और 'ता' मतलब - ताकत जनता जनार्दन से ही मिलती है ऐसे में अगर हम ग़लत लोगो को चुनते हैं तो उन लोगो से कुछ बेहतर करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। चुनाव के दिन तथाकथित पढ़े लिखे लोग वोट करने नही जाते, उन्हें लम्बी कतारों में आमजनों के साथ खड़ा होना नही भाता। पर यही बुद्धिजीवी बाद में देश के हर मुद्दे पर बड़ी बड़ी बातें करते है। युवा देश की तस्वीर बदलने की ताकत रखता है, कहते भी हैं जिस ओर युवा चलता है उस ओर ज़माना चलता है, लेकिन युवाओं की फौज कभी पेट्रोल तो कभी दारू के चक्कर में धन्धेबाज़ नेताओ के आगे पीछे घुमती नज़र आती है। अलग-अलग दलों के चुनावी रैलियों में कई बार सामान समर्थक नारे लगते नज़र आते हैं, पैसे पर जनता की भीड़ जुटाई जाती है। अब जब जनता ही अपने अधिकारों के प्रति सजग नही होगी तो भला नेताओ से उम्मीद कैसे की जा सकती है । हम जिसे नेता चुनते हैं उसके चल चरित्र को समझना अत्यन्त ही जरुरी है । हम वोट करे तो उन्हें करे जो जाति,धर्म, क्षेत्र , भाषा के मुद्दे पर हमे उलझाय ना रख कर हिंदुस्तान को सुदृढ़ और विकसित करने का विजन रखे॥ पर इसके लिए हमे ख़ुद को बदलना होगा....एक उम्मीद के साथ..आप का साथी...

हमें नही चाहिए ऐसे बेशर्म नेताजी

इस बार ये हलचल मचाई है समीर का ब्लॉग www.chitthii.blogspot.com
इस बार की चिट्ठी है आवाम के नेताओ के नाम और आवाज़ है पूरे हिंदुस्तान की । मुंबई पर आतंकी हमलों ने देश को हिलाकर रख दिया है। ये घटना न तो पहली बार थी न ही आखिरी । जाने कितनी बार आतंकियों ने देश के विभिन्न हिस्सों को अपना खुनी निशाना बनाया लेकिन हर बार भारत का ही सीना छलनी हुआ है। अब ये बात बिल्कुल साफ़ हो चुकी है की इन नेताओ के भरोसे आतंकवाद से लड़ना मुश्किल हो गया है।लेकिन आतंकवाद जैसे सवालात पर देश के सियासी नेता क्या सोचते है॥ ज़रा आप भी गौर फरमाइए।

शिव राज पाटिल (पूर्व केन्द्रीय गृह मंत्री ) कार्यकाल के दौरान देश पर आतंकी हमले होते रहे और जनाब सूट पर सूट रहे। मुंबई हादसे के बारे मे सही जानकारी नही थी। जिसके चलते टीम देर से हरकत मे आई।

लाल कृष्ण आडवाणी (विपक्ष के नेता) हमलोग साथ में (यूपिये) आना चाहते थे। लेकिन वे लोग शायद कल आयें तो मैं आज ही सबसे पहले पहुच गया।अरे आडवाणी साहब कम सेs कम इस मुद्दे पर तो आरोप प्रत्यारोप की होली खेलना बंद करो । । क्युकी जनता इन मामलो पर राजनीति न सुनना पसंद करती है न देखना। वो इन सारे मसालों का चाहती है स्थायी समाधान।

अच्युतानंदन (सी एम केरल) मैं मेज़र संदीप के घर सहानुभूति जताने गया था। अगर संदीप शहीद नही होते तो कोई कुत्ता भी झाँकने नहीं जाता।

मुख्तार अब्बास नक़वी (नेता बीजेपी) लिपस्टिक और पाउडर लगाकर मोमबत्ती के साथ विरोध नही किया जाता। पश्चिमी सभ्यता के साथ पोलिटिशियन को गाली मत दो।

विलासराव देशमुख (मौजूदा मुख्यमंत्री महाराष्ट ) मुंबई मे हमले पर हमले होते रहे और देशमुख जी चुप्पी साधे रहे मानो उन्हें सांप सूंघ गया हो। व्यवस्था बनाये रखने मे पूरी तरह विफल।

आर आर पाटिल (पूर्व उप मुख्यमंत्री महाराष्ट ) बड़े बड़े शहरों में छोटी छोटी बातें हो जाया करती है।

नरेन्द्र मोदी (मुख्यमंत्री गुजरात ) कुछ हफ्ते पहले साध्वी प्रज्ञा ठाकुर मामलों पर ऐ टी एस को अपना निशाना बनने और देशद्रोही जैसे संगीन आरोप लगाने वाले मोदी इस हमलो मे मारे गए ऐटीएस जवान और चीफ को १ करोड़ का सियासी लालीपॉप थमाने मुंबई पहुँच गए। लेकिन कविता करकरे का इसे लेने से इंकार।

शिबू सोरेन (मुख्यमंत्री झारखण्ड ) हमारे राज्य मे ताज और ओबेरॉय जैसा होटल नहीं है जो आतंकी हमला हो।

राम बिलास पासवान (लोजपा नेता ) रांची मे एक बड़ी सभा को भाषण बाजी करते रहे । एअरपोर्ट पर एक साथ उनका और इस हमले मे मारे गए मलयेश का शव उतरा। लेकिन उन्हें संवेदना व्यक्त करने तक की फुर्सत नही थी।

प्रकाश जावारेकर (नेता बीजेपी) एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल को दिए इंटरव्यू मे कहा की मुझे तो आपके चैनल ने आतंकवाद पर चर्चा के लिए बुलाया। लेकिन इस मुद्दे पर पूछे गए हर सवाल पर गोल मटोल बातें करते रहे।

सांसद (यूपी ) दो दिन बैठकर मैंने वहां एन्जॉय किया। मैंने चुनावी रणनीति तय की अपने लैपटॉप पर।

बकौल मेज़र जेनरल आर एल क्लात्बक - शासन व्यवस्था से विश्वास उठ जन आतंकवाद की पहली और सबसे बड़ी जीत है।

एन डी टीवी को नेताओ के प्रति नफरत और घृणा से भरे दो लाख एस ऍम एस मिले हैं।

एक सर्वे मे ८६ फीसदी लोगो का मानना है की नेतागण इस हमलो को रोकने मे पूरी तरह नाकाम रही है।

ये हमारी राजनीति व्यवस्था की विडम्बना ही है की ये नेता देशवासियों में उम्मीद जगाने मे असफल रहे। नेताओ होशियार। जनता जागने लगी है मुंबई हादसों पर उसकी प्रतिक्रिया सिर्फ़ एक बानगी है सब्र के फूटते पैमानों का। इससे पहले की हालत बेकाबू हो जाए संभाल लो अपना दामन। आमजनों और बेक़सूर की कीमत पर देश को दांव पर लगाने का खुनी खेल अब बंद करना होगा। अगर ये अपने मुंह पर लगाम नही लगा सकते तो देश क्या चलाएँगे। सियासत के लोग अगर इस दिशा मे कुछ ठोस कदम नही उठाएँगे तो जनता को ही इन्हे सबक सिखाने को आगे आना होगा। क्यूंकि अगर जनता जाग गई तो ये नेतागण कभी चैन की नींद नही सो पाएंगे।

11/28/08

आख़िर कब तक


देश में आए दिन हो रही आतंकी हमले से जहाँ मासूम बेगुनाह भारतीयों की जान जा रही है, वहीँ हमारे देश के नेताओं को इसमे भी राजनीति नजर आती है , लगता है ये चाहते यही है की आतंकी हमला हो और ये सरकार को कोसने में अपनी सारी ताकत लगा दे। मुझे ऐसे राजनीतिज्ञों पर घृणा होती है जो मासूम लोगों की लाशों पर भी अपनी राजनितिक रोटियां सकने से बाज नही आते। इन्ही कायर नेताओं की देन है की आए दिन अचानक हो रही आतंकी हमलों में हमारे दर्जनों शुरक्षाकर्मी शहीद हो रहे है और ये ऐ० सी० रूम में बैठकर आतंक के जन्मदाताओं से शान्ति की बात करते नजर आते है । आखिर कब तक हम शान्ति राग अलापते रहेंगे और अपने लोगों को ऐसे ही मरते देखते रहेंगे। हमारे देश में जब कोई हमला होता है तब ये नेता बड़ी बड़ी बातें करतें है , कुछ दिनों के बाद वही ढाक के तीन पात वाली कहानी नजर आने लगती है । हम अपने सैनिकों को यूँ ही शहीद होते देखने के बजाय उन्हें खुली छूट दे देनी चाहिए इन मुठी भर आतंकियों को इनके घर में घुसकर मरने के लिए। अब अहिंसा का यूग खत्म हो चला है हमें हिंसा का जवाब हिंसा से ही देना। राजनीतिज्ञों को भाषण बाजी छोड़ ठोस कदम उठाना चाहिए क्योंकि लड़ना तो आख़िर हमारे जवानों को ही है ........

11/21/08

इन रिश्तो का क्या कहना

इन रिश्तो का aक्या कहना । कब कहां और किससे बन जाए। कुछ दिन बीते हैं हाल -हाल तक 'ना उमर की सीमा हो ना जन्मो का हो बंधन' के राग अलाप कर बड़े बुजुर्गो और नौजवानों के बीच प्यार के रिश्तो पर बहस छिडी थी। खैर प्यार करने का हक सब को है चाहे वो बुजुर्ग हो या नौजवान । लेकिन कोई दादा या दादी बनने के उमर में नैन मटका करे तो ये थोड़ा अजीब लगता है। पर भई अब हमारी दुनिया में लोग रिश्तो की नई इबारत लिखने में लगे हैं।
बहुत पुरानी एक कहावत भी है रिश्ते रब बनाता है । जोडिया ऊपर वाला तय करता है । तबसवाल ये उठता है आज के आधुनिक परिवेश में ऊपर वाला भी कैसे -कैसे रिश्ते बनाने लगा है ? समलैंगिको की जमात क्या रब ही बनाता है। मर्द मर्द के पीछे भागने लगा है, औरत को औरत से ही प्यार होने लगा है। और तो और इस तरह के रिश्तो की वकालत भी लोग करने लगे हैं , ज़रा सोचिए क्या ऐसे रिश्ते सही है। ये ना सिर्फ़ प्रकृति के नियमो के खिलाफ है बल्कि मर्यादा के अनुकूल भी नही है। सिर्फ़ आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति का पिछलगू बनना हमारे लिए निहायत ही ग़लत है। अभी फ़िल्म दोस्ताना में दो लड़के सिर्फ़ इस लिए गे बनते हैं क्यूंकि उन्हें किराये पर घर चाहिए। फैशन जगत में भी कई समलैंगिक लोग हैं जो मात्र स्वार्थ के लिए ऐसे रिश्ते बनाते हैं । हाल ही में मेरठ की समलैंगिक प्रियंका- अंजू जिन्होंने अपने माँ बाप का कतल का आरोप है के पीछे भी करोडो की सम्पति का खेल है......खैर अच्छा होगा इन रिश्तो को सही ना ठहराया जाए...इन रिश्तो के पीछे की सच्चाई जो हो लेकिन कहीं ना कहीं स्वार्थ का भी एक खास स्थान होता है ।
अखिलेश के ब्लॉग http://www.humaap.blogspot.com/ से साभार .......

11/15/08

मत बांटो मजहब के नाम पे

अगर हम सब में जरा भी ईमान होता ,
तो धर्म के नाम पे हिंदू न मुस्लमान होता ,
न कोई अपनों को खोता न इन्सान होने पर रोता ,
न किसी बचे के आँखों में खौफ का मंजर होता ,
न किसी माँ की गोद से कोई बच्चा खोता ,
मजहब के नाम पे देश को बाँटने वाले ,
अगर रमजान में राम दिवाली में अली को देखा होता ,
तो इन्शानो का खून बहाने से पहले जरूर रोता ,

पत्रकार मित्र धीरेन्द्र पाण्डेय की प्रस्तुति ...............

11/12/08

याद रहोगे ''दादा''......

इस बार की चिट्ठी आई है ऑफ़ साइड के भगवान, सौरव चंडीदास गांगुली के नाम और लिखा है हिंदुस्तान ने।
विदाई की भावुक नमी में जीत का एक चम्मच शक्कर घुल जाये तो यही होता है। पनीली भावनायें मीठी हो जाती है और आसमां थोड़ा और झुककर पलकों पर बैठा लेने को बेताब। जी हाँ ये भारतीय क्रिकेट के महाराज की विदाई है कोई खेल नहीं। विदाई जीत के उस दादा की जो ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में पीटकर आता है। अंग्रेजों के भद्र स्टेडियम में अपने जज्बात दबाता नहीं बल्कि साथियो के चौकों और छक्कों और टीम की जीत पर टी शर्ट उतारकर हवा में लहराता है। जिसकी रहनुमाई में १४ खिलाडियो का समूह 'टीम इंडिया' हो जाती है। जो जीते गए मैचों की ऐसी झडी लगाता है की बस गिनते रह जाओ। जो 'टीम ''निकाला मिलने'' पर टूटता नहीं है। लड़ता है। समय का पहिया घूमता है और प्रिन्स ऑफ कोलकाता की टीम में वापसी होती है। भारतीय क्रिकेट का ये फाइटर शतक और दोहरे शतक के साथ सलामी देता है।
करीब डेढ़ दशक तक खेल प्रेमियों के दिलोदिमाग पर दादागिरी करने वाले बंगाल टाइगर ने भारतीय क्रिकेट की कमान उस वक़्त संभाली जब हर तरफ अँधेरा था। राह नहीं सूझ रही थी। ये लार्ड ऑफ द विन भारतीय क्रिकेट के सव्यसाची थे । जिन्होंने टीम ही नहीं खेलभावना को पराजय और अवसाद के अंधेरो से बहार निकाल कर बड़े बड़े मैदान में विजय पताका फहरायी। निराशयों के बीच आशा की नई किरण तलाशने की सीख सौरव ने ही टीम इंडिया को दी।
सौरव गांगुली का आना , उसका होना, और उसका जाना हमारे जेहन में हमेशा तरोताजा रहेगा। भारतीय क्रिकेट के परिवर्तन के सूत्रधार के रूप में सौरव सदा याद किये जाएँगे।
इस ग्रेट वारियर को खिलाडी के तौर पर अंतिम सैल्यूट..... ।
धन्यवाद....

11/11/08

एक दर्द


एक बात जो मुझे आज भी सताती है ।

गरीबों के गरीबी को याद दिलाती है ।

दर्द भरी ऑंखें भूखे पेट दिल जलती है ।

एक बात जो मुझे आज भी सताती है ।

एक चेहरा जो मुझे आज भी आँखे दिखाती है ।

तन पे फटे कपड़े कचडे का बोझ बस यही बताती है ।

एक बात जो मुझे आज भी सताती है ।

निराशा में आशा की जोत जलाती है ।

क्यों इंसानों के पास गरीबी आती है ।

एक बात जो मुझे आज भी सताती है ।

पत्रकार मित्र धीरेन्द्र पाण्डेय की प्रस्तुति .........

दादा अलविदा

"मेरी पारी पूरी हो चुकी है ,हर क्रिकेटर का समय होता है , इसके बाद उसे खेल को अलविदा कहना होता है मुझे ख़ुशी है कि भारत ने मेरी आखरी श्रृंखला जीती । मैंने अच्छा खेला और पुरे शंतोष के साथ खेल को अलविदा कह रहा हूँ "
ये बोलते हुए दादा के चेहरे में साफ झलक रहा था की दादा का सन्यास लेने के पीछे कोई न कोई कहानी जरूर है जो शायद कुछ दिनों के बाद हम जान पाएंगे । ईरानी ट्राफी में शामिल न करना और आस्ट्रेलिया टीम में दादा का चयन होना अपने आप में एक अबूझ पहेली है । जहाँ तक दादा का क्रिकेट को अलविदा कहने की बात है मेरे विचार से यह दवाब में लिया गया फैसला है । दादा ,बोर्ड और चयन समिति के बिच चल रहा आपसी टकराव के कारन ही पहले दादा को टीम की कप्तानी से हाथ धोना पड़ा और फिर टीम से जाना पड़ा, लेकिन ये बंगाल का शेर ही था जो कभी हर नहीं माना , उसने हर परिस्थिति का सामना किया और टीम में वापसी करता रहा । बोर्ड की राजनीती और चयन समिति की बेरुखी के कारन गांगुली ने इस खेल से ही अपने को दूर रखना उचित समझा और अनमने मन से संन्यास लेने को मजबूर होना पड़ा । आज भारतीय क्रिकेट में कोई नहीं है जो दादा की जगह ले पायेगा। दादा ही एकमात्र इसे खिलाडी है जिन्होंने भारतीय क्रिकेट को बुलंदिओं तक पहुचाया जिसने लड़ना सिखाया। दादा भारतीय क्रिकेट में हमेशा याद आते रहेंगे । मझे दुःख होता है की अब हम दादा का दादागिरी नहीं देख पाएंगे। अंत में बी. सी. सी .ई से इतना कहना है की कमसे कम इन वरिष्ट खिलाडियों का सम्मान करना चाहिए जिन्होंने अपने जिंदगी के १५ - १५ साल देश के लिए खेलते हुए गुजरें हो ।
अलविदा दादा .....

11/8/08

इतिहास बदलेगा ?

पिछले दिनों अमेरिका के इतिहास में जो परिवर्तन आया वह शायद इसके बाद देखने को नही मिलें। लेकिन इस परिवर्तन ने व्हाइट हाउस में एक ब्लैक शख्स को जरूर ला खड़ा किया है जो बिश्व के सबसे ताकतवर देश का राष्ट्रपति होगा । कहा जाता है इतिहास दबे पाव आता है और उसके गुजर जाने के बाद इतिहास का प्रभाव शताब्दियों तक रहता है । बराक ओबामा के विजय होने से अमेरिका में वर्षो से चली आ रही श्वेत और अश्वेत के बीचपनपी खाई पाटने की पुरी संभावना है । मार्टिन लूथर किंग का सपना "मेरा सपना है की मेरे चार छोटे बच्चे एक इसे देश में रहेंगे ,जहाँ उन्हें उनकी त्वचा के रंग से नही बल्कि उनके चरित्र के आधार आँका जाए "यह सच साबित होता नजर आने लगा है ।किंग के जीवित रहते तो यह सपना पुरा नही हो पाया लेकिन यह सपना लाखों अमेरिकियों का सपना बन गया , यह सपना सच हहा ५ नवम्बर को जब एक अफ्रीकी अमेरिकी बराक ओबामा अमेरिका के ४४ राष्ट्रपति के रूप में चुने गएँ ।इसे लिखने का मेरा मकसद यह है की अमेरिका तो अब श्वेत और अश्वेतों की लडाई से बहुत ऊपर उठ चुका है और शायद यही वजह रही की आज अमेरिका रुष जैसे प्रान्तिये राजनीती से ग्रस्त ताकतवर देश को भी पीछे छोड़ते हुए विश्व के मानचित्र में सबसे ताकतवर देश के रूप में आ खड़ा हुआ । वहीँ आज हमारा देश जातिगत के जाल में इस कदर उलझा हुआ है की यहाँ की जातिगत पार्टियाँ बड़ी पार्टियों पर भी भारी पड़ती है । और शयद यही वजह है की सरकार चाह कर भी देश हित में कोई कदम उठा नही पाती है । अगर हम भी अमेरिकियों से सबक लेते हुए जातीय भेदभाव को भूल देश की उन्नति और प्रगति के बारे में सोचें ।

देखना है की क्या यहाँ की इतिहास भी बदलेगी ?

10/22/08

मनसे की मनमानी

रेलवे का एग्जाम लिखने गए उत्तर भारतीय छात्रों के साथ जो कुछ भी मुंबई में राज समर्थको ने किया वह किसी भी हालत में सही नहीं कहा जा सकता । ऐसी हरकत करने वालों को शायद यह पता नहीं है कि किसी भी भारतीय को कहीं भी आने जाने या फिर रोजी रोजगार करने कि स्वतंत्रता है । भारत का एक मात्र राज्य जम्मू तथा कश्मीर है जहाँ कुछ पावंदिया है । मेरे ख्याल से ऐसे लोगो पर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए जो भारतीय अखंडता को तोड़ने कि कोशिश कर रहे है । राज कि करतूत को इनकी गन्दी राजनीती ही कही जायेगी जो आम जनता को एक दुसरे से लड़ा कर अपनी राजनितिक रोटियां सेंकते है । राज जैसे नेताओं पर आजीवन राजनितिक प्रतिबंद लगा देना चाहिए ।