हलचल
ये क्या हो रहा है.........
8/19/10
यह क्या हो रहा है
6/16/10
राजभवन के गमले टूटे + पत्रकार का हाथ टूटा = झारखंड राष्ट्रपति शासन के हवाले
आकाश सिंह करीब 35 दिनों तक झारखंड में राजनीतिक उठा पटक का दौर चला, नेताओं के साथ साथ पत्रकार भी बेचैन रहे, राजनीतिक हालात की पल पल बदलती तस्वीर जो उनको चैनल को देनी थी. प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया सभी पत्रकारों की दौड़ नेताओं और मंत्रियों के आवासों से लेकर एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशनों तक रही. पत्रकारों की फ़ौज के सामने कभी कभी नेता मेमने की तरह कुलांचे मारते हुए, भागते भी देखे गए तो कभी मीडिया कर्मी आपस में उलझते हुए भी दिखे. बाईट लेने की आपधापी में कई के कैमरे तो टूटे ही वहीं खबरों की टोह लेने में कई पत्रकार भी घायल हुए. ये तो हुई नेताओं और पत्रकारों के बीच का मामला जो आये दिन होता रहता है. लेकिन अगर महामहिम राज्यपाल के यहां भी यही नजारा देखने को मिले तो वाकई ये शर्मनाक है. हुआ यूं कि राजनीतिक नौटंकी में मदारी के बन्दर की तरह नाचते पत्रकार और मदारी की तरह नचाते नेताओं का राजभवन समर्थन वापस लेने या फिर इस्तीफा देने का सिलसिला कई दौरों तक चला. झारखंड के इस राजनितिक उठापटक के इस दौर में लोकल स्तर से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर की खबरिया माध्यमों के पत्रकार इनके पीछे पीछे दौड़ते रहे. क्योंकि खबर हर कीमत पर जो उन्हें देनी थी. हम आपको पहले बीजेपी के सरकार से समर्थन वापसी के समय हुई घटना के बारे में बता दें. हुआ यूं कि जब बीजेपी सरकार से समर्थन वापसी की गयी तो मीडिया का पूरा हुजूम भी पीछे पीछे दौड़ पड़ा. नेता तो वैसे भी करीब एक महीने से चली आ रही नौटंकी के कारण मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह गए थे इसलिए वे पत्रकारों से भागते फिर रहे थे, इसी भाग दौड़ में बीजेपी के नेताओं के राय जानने को बेताब पत्रकारों का हुजूम जब उनकी ओर लपका तो सुरक्षा कर्मियों ने पत्रकारों को पीछे धकेलना शुरू कर दिया फिर क्या था राज भवन के परिसर में रखे गए करीब 15 गमले खबर की भेंट चढ़ गए. ये तो हुई बीजेपी के समर्थन वापसी के समय की घटना अब शाम के वक़्त गुरूजी यानि तत्कालीन मुख्यमंत्री झारखंड, शिबू सोरेन को राज्यपाल का बुलावा भेजा गया कि आप अब कैसे अपनी सरकार बचायेगे. गुरूजी के राजभवन आने की सूचना सुनकर कुत्ते की नींद में सोने वाले पत्रकारों की आँखे खुल गयी, एक बार फिर मीडिया जगत का पूरा जत्था राजभवन की ओर कूच कर गया. गुरूजी के राज्यपाल से मिलकर बाहर निकलते ही सभी मीडिया बंधु उनपर टूट पड़े. फिर होना क्या था. करीब 21 गमलों की फिर कुर्बानी चढ़ गयी. एक दिन में झारखंड की राजनीति पर राजभवन जैसे सम्मानित स्थल के 36 गमले की बलि चढ़ाई गई. इस राजनीतिक उठापटक का अंत और भी रोचक है, हुआ यूं की जब गुरूजी को लगा की अब सरकार तो मेरी बचेगी नहीं सो उन्होंने शक्ति परीक्षण से एक दिन पहले यानि 30 मई को अपना इस्तीफा देने राजभवन पहुंचे उस दिन भी वही हुआ जो पहले होता आया था पत्रकारों और नेताओं के चूहे बिल्ली के खेल में 9 गमले और टूटे, तो कुल मिलाकर 45 गमलों ने झारखंड की बलखाती राजनीति में अपना जीवन न्योछवर कर दिया. तो भैया जब राजभवन का इतना नुकसान हुआ तो इसकी भरपाई के लिए सजा तो आखिर किसी न किसी को मिलनी ही थी, और सजा मिली भी, बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास जब राज्यपाल से मिलकर निकल रहे थे तब रीजनल न्यूज़ चैनल के एक वरिष्ठ पत्रकार ने रघुवर जी से राज्यपाल से मिलने के विषय के बारे में जानकारी लेनी चाही और अपना माइक गाड़ी में बैठ चुके रघुवर दास के खिड़की से अन्दर कर दिया , झारखंड की राजनीति में अचानक फर्श से अर्श पर पहुंचे और बौखलाए तत्कालीन उप मुख्यमंत्री महोदय ने बिना कुछ बोले गाड़ी का पावर विंडो बंद कर दिया जिसकी वजह से खिड़की से अन्दर अपना हाथ डाले संवाददाता महोदय का हाथ शीशे से दब गया और हाथ फ्रैक्चर हो गया. फिर अगले दिन महामहिम की सिफारिश पर झारखंड में राष्ट्रपति शासन लग गया. तो देखा बंधुवर कैसे गमले की बलि के साथ पत्रकारों को चोट लगी और झारखंड को राष्ट्रपति शासन का मुंह देखना पड़ रहा है. |
9/26/09
भारतीय टेलीविजन के 50 साल का सफ़र
टेलीविजन ने 50 साल पूरे कर लिए हैं। 15 नवम्बर 1959 का वह साल था जब भारत में टेलीविजन ने कदम रखा. पहला कदम छोटा था, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि छोटे छोटे क़दमों से चलने वाला यह उद्योग एक दिन विश्व बाज़ार को समेटने का माद्दा रखेगा. हालांकि टेलीविजन का आविष्कार 1923 में ही हो गया था, लेकिन इसका सार्वजनिक प्रसारण 1938 से शुरू हुआ. भारत में टेलीविजन 15 सितम्बर 1959 में आया. शुरूआती दौर में इसकी गति काफी धीमी रही. उस वक़्त इसका प्रसारण दिल्ली तक ही सीमित था. सप्ताह में दो बार एक एक घंटे के लिए प्रसारण होता था. चाल इतनी धीमी थी कि टेलीविजन को दिल्ली से मुंबई आने में बीस साल लग गए. 1982 का वह वर्ष था जब भारतीय टेलीविजन रंगीन हुआ. 7 जुलाई 1984 में भारत का सबसे पहला धारावाहिक "हमलोग" का प्रसारण दूरदर्शन ने किया जो 163 एपिसोड का था. ये देश का पहला शॉप ऑपेरा था. प्रणय राय और विनोद दुआ की जोड़ी द्वारा प्रस्तुत की गई चुनाव विशलेषण ने समाचार की धारा ही बदल दी. भारतीय टेलीविजन की शुरुआत दूरदर्शन के साथ हुई. 1990 के बाद भारत में निजी चैनलों ने करवट लेनी शुरू की और भारत विकास की एक नई यात्रा पर चल पड़ा. भारतीय टेलीविजन के शुरूआती दौर में एक मात्र चैनल दूरदर्शन था. दूरदर्शन ने अपने शैशव काल में प्रसारण को लेकर काफी दिक्कतों का सामना किया. अक्सर दूरदर्शन का प्रसारण एक या दो घंटे के लिए बंद हो जाया करता था. कारण था, उस वक्त टेक्नोलॉजी इतनी विकसित नहीं थी. प्रसारण बंद होने के बाद शास्त्रीय संगीत की मधुर धुन बजने लगती थी. भारतीय टेलीविजन में एक ऐसी आवाज है जो तब से लेकर आज तक जीवित है. "मिले सुर मेरा तुम्हारा" की धुन ने दूरदर्शन को एक खास पहचान दी. यह धुन लोगों के जुबान पर चढ़ गई. यह बात भी सही है कि देश का पहला टेलीविजन चैनल दूरदर्शन हमेशा सरकारी आकाओं का गुलाम रहा. जो आज भी है, भारतीय टेलीविजन में समय के साथ बदलाव भी आता गया. हफ्ते में दो दिन एक-एक घंटे चलने वाला कार्यक्रम आज 24/7 हो गया. आज ना तो टेलीविजन का प्रसारण बंद होता है और न ही उबाऊ प्रोग्राम देखने को मिलता है. आज देश में लगभग 417 चैनल चल रहे हैं, जो अलग-अलग फ्लेवर और कलेवर में उपलब्ध हैं. आप अपनी मर्जी के प्रोग्राम का लुत्फ़ उठा सकते है. टेलीविजन के आने से सूचनाओं की गति काफी तीव्र हो गई. आज देश-दुनिया की खबरें रिमोट के एक बटन में मिल जाती हैं. साउंड के साथ विजन की यह टेक्नोलॉजी ने पूरे विश्व को ग्लोबल विलेज में तब्दील कर दिया है. जिस तरह सिक्के के दो पहलू हैं. ठीक उसी तरह टेलीविजन के भी दो पहलू हैं. एक ओर जहाँ यह हमें ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा-मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराते हैं. वहीं इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं. टेलीविजन बाज़ार तंत्र की ओर बढ़ने लगा है. पहले जहाँ टेलीविजन परिवार के सदस्यों के साथ बैठ कर देखा जाता था, वहीं आज कई ऐसे प्रोग्राम है जो मर्यादा की सारी हदें लाँघ रहा है. हम कह सकते हैं कि टेलीविजन आज ड्राइंग रूम से होकर लिविंग रूम में चला गया है. टेलीविजन में आपत्तिजनक प्रोगाम पर आवाजें उठी हैं. कई वर्गों ने तो फिल्म उद्योग की तरह इसपर भी सेंसर लगाने की मांग की है. लेकिन यह विडंबना ही कहें कि सूचना प्रसारण मंत्रालय के गठन होने के बावजूद यह आज भी अपने अस्तित्व की तलाश में है. इसके पास मंत्रालय तो है लेकिन प्रसारण से संबंधित अधिकार नहीं. कारण है, राजनीतिक पार्टियों के हांथों की कठपुतली होना. बहरहाल हर अच्छे चीज के साथ बुराई जुडी होती है. फिर भी हमें गर्व है कि आज भारतीय टेलीविजन पूरे विश्व में एक अलग पह्चान बनाने में कामयाब रहा है.
2/25/09
राजनिति का अपराधीकरण
स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले लोग जबतक भारतीय राजनीति में रहें तबतक अपराधीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ नही हुई थी। लेकिन वर्तमान राजनीति परिदृश्य में चारों ओर अपराधियों की जमघट दिखाई दे रहा है। आज हमारे नेता अपराधिक चरित्र वालों को उच्च पदों पर बैठा रहे है और सज्जनों को अपमान का विष पीना पड़ रहा है। आज के दौर में सभी नेता और राजनितिक दल सत्तालोलुप है। कुर्सी पाना उनका एकमात्र लक्ष्य रह गया है, वे डाकुओं , माफिया ,सरगनाओं एवं अपराधियों को पार्टी टिकट देकर चुनाव लड़वाते है। वे जानते है की जानता उनके भय और आतंक से उन्हें ही वोट देगी। वर्तमान परिदृश्य में कोई एक दल को दोषी ठहराना उचित नही होगा, सभी राजनितिक एक ही थैली के चट्टे बट्टे है। वर्तमान समय में संसद और विधानसभाओं में कई एसे चेहरे दिखाई देते है जिनकी वास्तविक जगह जेल की सलाखों के पीछे होनी चाहिए थी। आज के समय में जब मिली जुली सरकार बन रही है , किसी दल के पास इतना बहुमत नही है किवे अपने दम पर सरकार बना सके,तब वे किसी को भी अपने दल में शामिल करने को तैयार हो जाते है, चाहे वो अपराधी सांसद या विधायक क्यों न हो।
वर्तमान में भारतीय राजनीति कि स्थिति यह है कि अब अच्छे लोग इसमे आना नही चाहते है। राजनीति भरष्टाचार apne चरम पर है। दल बदल के लिए बनाया गया कानून प्रभावी नही हो पा रहा है। आज पैसे के बल पर किसी भी दल के सांसद विधायक को ख़रीदा जा सकता है। राजनीति के अपराधीकरण का परिणाम यह है कि अब संसद और विधानसभावों कि गरिमा घटी है। वहां अब लात घूसे मेज कुर्सी सब चलती है, गाली गलौज एवं मारपीट तो आम बात हो गई है।चुनाव आयोग राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए नियम तो बनाए हैं। लेकिन वह भी अबतक इसे रोकने में असमर्थ ही रही है। अपराधियों को संसद और विधान सभाओं में जाने से रोकने के लिए देश कि जानता को जागरूक होना अति आवश्यक है, अगर वे दागी लोगों को वोट न दे तो इससे निजात पाया जा सकता है,और तभी चम्बल के बिहरों के शेर संसद जाने से रोके जा सकेंगे।
12/28/08
शुभ अशुभ का चक्रव्यूह
12/22/08
कानून ही काफी नही
12/18/08
जूते की महिमा अपरम्पार ...
भई
मिसाइल, गोली बन्दूक जैसे हथियारों का निशाना भले ही चुक जाए पर जूते का निशाना
हमेशा सटीक बैठता है, चोट शरीर पर लगे ना लगे प्रतिष्टा पर आंच जरुर ही आता है।
जूते ने अपना कमाल दिखाया है, जूते की बदौलत ही एक टीवी पत्रकार दुनिया में हीरो बन गया। सोचता हूँ मेरे जैसे कितने ही टीवी पत्रकारों के जूते रोज रोज फोकटिया न्यूज़ के चक्कर में घिस रहे हैं, कम से कम मैं तो किसी को अपने आठ नम्बर के जूते की फटी सोल से इज्जत दूँ। मानता हूँ मुझे अंकल सैम ना मिले पर हमारे अगल बगल भी तो कितने मामू लोग बैठे हैं । बल्कि ये मामू तो और भी सुलभ हैं कदम कदम पर मिल जाते हैं । आज कल मामू लोग आतंकवाद के खिलाफ मुहीम चला रहे हैं, जनता की सुरक्षा की चिंता इन्हे खाए जा रही है, वैसे वे जनता का बहुत कुछ जनवादी और जनसेवक होने की वज़ह से खा चुके हैं। मामू भी सुरक्षित रहे इसके लिए उनकी सुरक्षा भी बढ़नी जरुरी है,ऐ प्लस -बी प्लस और सी प्लस से काम नही चलेगा कम से कम जेड प्लस और कुछ कमांडो तो जरुरी है खैर भाई ये सब तो उनका हक़ है। पर हमारा भी हो फ़र्ज़ बनता है ना की मामू की इस सेवा का कुछ तो अदा करे जैदी से थोडी सीख मिली सोच रहा हूँ मामू को भी जूते की महिमा से परिचित कराया जाए।